होली
अग्निदेव की अग्रदूत तुम
अग्निदेव की अग्रदूत तुम
रसिया करते तुम्हें नमन |
पकी फसल की बनकर शोभा
देतीं हम सबको जीवन ||
ईर्ष्या द्वेष मलिनता सबकी
निर्मल करती हो तन-मन |
निर्मलता तेरी रक्षित हो
होली सबका व्रत पावन ||
विविध रुप अपने दिखलती
कैसी अद्भुत हो प्रियवर |
कई खेलते लठ्ठम लठ्ठा
कई झूमते मधुपीकर ||
नव सम्वत् लेकर बाहों में
निकली हो तुम डगर-डगर |
खुशहाली तुम जन-जीवन की
तुम से शोभित ग्राम नगर ||
होली है उपहार प्रकृति का
रंग जगत् का अवलंबन |
रंगों से जीवन की शोभा
रंगों से जीवित जीवन ||
कहीं बनीं है मिलन दिलों की
कहीं बरसती रंग बनकर |
देवर-भाभी जीजा-साली
गरमा गरम कहीं शीतल ||
रचयिता – डॉ सत्येन्द्र प्रकाश ‘सत्यम्’